- December 15, 2022
सोशल मीडिया पर खबरों के दौर में भी अखबारों पर भरोसा कायम
ट्राई सिटी एक्सप्रेस। न्यूज
टीवी चैनलों और अखबारों में सबसे बड़ा फर्क वही है, जो बोलने और लिखने में होता है। बोला हुआ शब्द वापस नहीं होता, लेकिन लिखा हुआ सुधारा जा सकता है। इसीलिए आज भी टीवी चैनलों की तुलना में अखबारों पर पाठक ज्यादा विश्वास करते हैं।
टीवी की खबरें बहुत ज्यादा लोग देखते हैं, लेकिन कम ही लोग उन पर पूरा यकीन करते हैं।
अब ओटीटी माध्यमों की न्यूज़ में भी एंट्री हो गई है। ऐसे में समाचार माध्यमों की लोकप्रियता पर फिर से बहस शुरू हो गई है। जहां तक राष्ट्रीय मीडिया की लोकप्रियता का सवाल है, यह कहना कठिन है कि उसके प्रति आम लोगों का प्रेम या आदर बढ़ा है। लेकिन उसके दर्शकों और पाठकों की संख्या यकीनन काफी बढ़ी है। पहले किसी अखबार के दो-तीन संस्करण निकलते थे तो उसे बड़ा अखबार मान लिया जाता था। लेकिन अब दर्जनों संस्करणों वाले देश में अनेक अखबार हैं। यही स्थिति टीवी चैनलों की है। शुरू-शुरू में चार-पांच न्यूज़ चैनल ही दिखाई पड़ते थे, लेकिन आज विभिन्न भाषाओं में देश में सैकड़ों चैनल हैं। कई सर्वेक्षणों से पता चलता है कि दर्शकगण अब टीवी पर प्रतिदिन अपने कई घंटे रोज खपा देते हैं। अखबार पढ़ने के मुकाबले टीवी देखना दर्शकों के लिए सुलभ और सस्ता होता है।
इसके बावजूद यह कहना मुश्किल है कि अखबारों और चैनलों की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता में कोई वृद्धि हुई है। जहां तक टीवी चैनलों का सवाल है, उनमें से दो-तीन पर ही प्रामाणिक और गम्भीर बहस होती है। वरना ज्यादातर चैनल तो हर मुद्दे पर पार्टी प्रवक्ताओं और पूर्वाग्रहग्रस्त पत्रकारों का दंगल ही दिखाते रहते हैं। इनकी प्राइम टाइम बहसों की सार्थकता पर भी सवाल खड़े होते रहते हैं। टीवी चैनलों के मालिकों को भी टीआरपी की तलाश रहती है। जहां तक खबरों का सवाल है तो ज्यादातर टीवी चैनल किसी एक तरफ झुके-झुके मालूम पड़ते हैं। उनके पास अखबारों की तरह सैकड़ों संवाददाताओं का जाल नहीं होता। उनके इने-गिने संवाददाता कुछ ही खास खबरों को पकड़ पाते हैं और उन पर भी वे अपना रंग चढ़ाने की कोशिश करते रहते हैं। टीवी की खबरें बहुत ज्यादा लोग देखते हैं, लेकिन कम ही लोग उन पर पूरा भरोसा कर पाते हैं।
वहीं, अखबारों की खूबी यह भी है कि उनमें पाठकों के आसपास की खूब स्थानीय खबरें भी होती हैं और पढ़ी हुई खबरों को उलट-पुलटकर देखने की भी सुविधा उन्हें होती है। वे सुनी हुई और पढ़ी हुई खबरों को मिलाकर उनकी सच्चाई भी जांच सकते हैं। टीवी चैनलों और अखबारों में सबसे बड़ा फर्क वही है, जो बोलने और लिखने में होता है। बोला हुआ शब्द वापस नहीं हो सकता। लेकिन लिखा हुआ तो सुधारा भी जा सकता है। इसीलिए टीवी चैनलों के मुकाबले अखबारों की खबरों और लेखों पर पाठक ज्यादा भरोसा करते हैं।
खबरों की सच्चाई जानने की तीव्र इच्छा ने ही आजकल सोशल मीडिया को अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया है। लोग अपने फेसबुक, वॉट्सएप्प, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि पर रोज घंटों खर्च करते हैं। उन्हें टीवी और अखबारों से ज्यादा मजा इन माध्यमों के इस्तेमाल में आता है, क्योंकि इनके जरिए वह अपनी खुशी, क्रोध, दु:ख, निराशा, हताशा- सबकुछ मुक्त रूप से व्यक्त कर सकते हैं। इन माध्यमों का अपना मनोविज्ञान है। सोशल मीडिया में आप जो चाहें, सो लिखें। कुछ ही क्षणों में वह असंख्य लोगों तक पहुंच सकता है। लगभग मुफ्त की इस सुविधा का इस्तेमाल कौन नहीं करना चाहेगा?
यह मुफ्त और मुक्त सुविधा पारम्परिक मीडिया से ज्यादा लोकप्रिय हो गई है। लेकिन यह जितनी सुलभ है, उतनी ही खतरनाक भी है। इसका इस्तेमाल झूठ फैलाने, विभ्रम पैदा करने और हिंसा आदि को उकसाने के लिए अकसर कर लिया जाता है। अब इस पर लगाम लगाने की आवाजें उठ रही हैं। सरकारें तो समय-समय पर तरह-तरह के प्रतिबंध थोपती ही हैं, लेकिन जो कम्पनियां इन्हें संचालित करती हैं, वे भी आजकल सतर्क हो गई हैं।
अखबारों और टीवी चैनलों को तो तत्काल काबू करना आसान है, लेकिन सोशल मीडिया समुद्र की लहरों की तरह है। उस पर नियंत्रण सरल नहीं। एक ही रास्ता है कि उसका इस्तेमाल करने वाले स्वयं पर काबू रखें और उसमें चल रही खबरों और बातों को अच्छी तरह से चबाए बिना निगल नहीं जाएं।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष